जीवन व्यवहार के लिए बौद्ध उपाय

आज शाम हम चर्चा करेंगे कि दैनिक जीवन को सफल बनाने के लिए बौद्ध विधियों का किस प्रकार प्रयोग किया जाए। हम जिन बौद्ध विधियों या बौद्ध शिक्षाओं की बात करते हैं, उनके लिए संस्कृत भाषा में “धर्म” शब्द का प्रयोग किया जाता है। यदि हम “धर्म” शब्द का वास्तविक अर्थ ढूँढें तो इसका अर्थ होता है “वह तत्व जो हमें अपने नियंत्रण में रखता है।” धर्म वह तत्व है जो हमें परिमित रखता है या हमें दुख और कष्ट भोगने से बचाता है।

चार आर्य सत्य

बुद्ध ने जो पहली शिक्षा दी उसे “चार आर्य सत्य” के नाम से जाना जाता है। इसका अर्थ यह है कि चार ऐसे तथ्य हैं जिन्हें सभी अभिज्ञ जन जो यथार्थ को समझते हैं, सही मानते हैं। ये चार सत्य हैं:

  • यथार्थ दुख जिनका हम सभी मनुष्य सामना करते हैं।
  • इन दुखों के यथार्थ कारण।
  • यदि इन यथार्थ दुखों को सच्चे अर्थ में समाप्त किया जा सके ताकि ये दुख हमें फिर कभी पीड़ित न कर सकें तो कैसा हो।
  • ज्ञान, आचरण आदि की वह रीति जिसका पालन करने से सभी दुखों से हमारी मुक्ति सम्भव है।

हमारे यथार्थ दुख

बौद्ध धर्म में दुखों और उन्हें नियंत्रित करने के उपायों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। वस्तुतः बुद्ध की सभी शिक्षाओं का ध्येय जीवन के दुखों पर विजय प्राप्त करने में हमारी सहायता करना है। उनकी शिक्षाओं में सुझाई गई पद्धति दरअसल बहुत तर्कसम्मत और यथार्थपरक है। शिक्षाओं में कहा गया है कि हमारे जीवन की जो भी समस्याएं हैं, वे किन्हीं कारणों से उद्भूत हैं। इसलिए हमें बहुत ईमानदारी से और गहनता से अन्तरावलोकन करना चाहिए कि हमारे जीवन की वे कौन सी समस्याएं हैं जिनका हम सामना कर रहे हैं। हममें से बहुत से लोगों के लिए यह कोई बहुत आसान प्रक्रिया नहीं है। दरअसल अपने जीवन के कठिनाई वाले पक्षों पर दृष्टिपात करना बड़ा पीड़ादायक होता है। बड़ी संख्या में लोग इस पक्ष को अस्वीकार करने की मुद्रा में रहते हैं। वे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते कि वे समस्याओं ─ उदाहरण के लिए किसी अस्वस्थ सम्बंध की समस्या ─ का सामना कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद वे दुख भोग रहे होते हैं। लेकिन हम अन्तरावलोकन करने के बाद बात को सिर्फ “मैं दुखी हूँ” के स्तर पर नहीं छोड़ सकते हैं। हमें गहराई में झांक कर देखना चाहिए कि दरअसल समस्या क्या है।

हमारी समस्याओं के यथार्थ कारण

इसलिए हमें पड़ताल करके पता लगाना चाहिए कि हमारी समस्याओं के क्या कारण हैं। आखिर समस्याएं अपने-आप, अकारण तो नहीं होती हैं। उनके पीछे कोई कारण तो होना चाहिए, और ऐसे बहुत से कारक होते हैं जो किसी स्थिति को असंतोषजनक बनाते हैं। उदाहरण के लिए, जब किसी सम्बंध में व्यक्तित्व के आधार पर झगड़े होते हैं, तो इसके अलावा स्थिति को जटिल बनाने वाले और भी कारक हो सकते हैं, जैसे धन की तंगी जैसे आर्थिक कारण आदि, बच्चों से सम्बंधित समस्याएं, या दूसरे सम्बंधियों से जुड़ी समस्याएं। अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ समस्या को बढ़ा रही हो सकती हैं। लेकिन बुद्ध ने कहा कि हमें अपनी समस्याओं के गहनतम कारण को जानने के लिए गहरे, और गहरे जाना होगा; और, हमारी समस्याओं का सबसे गहरा कारण वास्तविकता के बारे में हमारा भ्रम या अज्ञान है।

हम दुख उठाते हैं और पीड़ा भोगते हैं, और यह सब किसी कारण से होता है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हम बहुत व्याकुलतापूर्वक ─ अत्यंत क्रोधपूर्ण व्यवहार कर रहे हो सकते हैं। क्रोधित होकर कोई खुश नहीं होता है, कोई होता है क्या? इसलिए हमें यह समझना होगा कि हमारा दुख हमारे क्रोध से उत्पन्न हो रहा है और यह कि किसी प्रकार स्वयं को क्रोध से मुक्त करना होगा।

हमारे लिए दुख उत्पन्न करने वाली समस्या का कारण यह भी हो सकता है कि हम हर समय चिन्ता करते रहते हैं। कोई भी चिन्तामग्न रहते हुए खुश नहीं रह सकता है, है न? भारत के महान बौद्ध आचार्य शांतिदेव ने कहा था कि यदि आप किसी ऐसी मुश्किल स्थिति में हों जिसे बदलने के लिए आप कुछ कर सकते हैं, तो फिर चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? बस, उस स्थिति को बदल दीजिए। चिन्ता करने से तो कोई लाभ नहीं होने वाला है। और, यदि आप उस स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं, तो फिर चिन्ता करने से क्या लाभ? यहाँ भी चिन्ता करने से कोई फायदा नहीं होगा। इस प्रकार चिन्ता को लेकर हमारे मन में भ्रम की स्थिति होती है, और इसलिए हम चिन्ता करते रहते हैं। आशय यह है कि चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं है।

इसके अलावा एक और स्तर पर समस्या होती है, वह समस्या यह है कि हम कभी सन्तुष्ट नहीं होते हैं। निःसंदेह हमारे जीवन में खुशी के दौर आते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा समय सदा के लिए नहीं चलता, और हम हमेशा और खुशी की अपेक्षा रखते हैं। इतने से कभी संतोष नहीं मिलता। हम अपना प्रिय भोजन केवल एक बार खा कर कभी संतुष्ट नहीं होते, क्या ऐसा होता है? हम अपना प्रिय भोजन बार बार खाना चाहते हैं। और यदि हम उसे एक ही बार में बहुत अधिक खा लें, तो पहले जो असंतोष हमें हुआ था उसकी परिणति पेट दर्द के रूप में होती है। इस प्रकार ऐसी प्रसन्नता को लेकर हमारे मन में थोड़ा भ्रम रहता है। खुशी जिस रूप में है उसी रूप में उसका आनन्द लेने और यह समझने के बजाए कि यह खुशी हमेशा नहीं रहेगी और इतने से हम कभी संतुष्ट नहीं हो सकते, हम उस खुशी से चिपके रहना चाहते हैं; और जब वह खुशी हमसे छूट जाती है, तो हम बहुत दुखी हो जाते हैं।

यह कुछ ऐसा होता है जैसे हम अपने किसी प्रिय मित्र या किसी प्रियजन के साथ हों, और फिर वह हमसे बिछड़ जाए। कभी न कभी उनका बिछड़ना तो तय है, इसलिए हमें उस समय को खुशी से बिताना चाहिए जब तक हम उनके साथ हैं। कभी कभी हम एक बहुत सुन्दर बिंब का प्रयोग करते हैं। जब भी कोई अद्भुत व्यक्ति जिसे हम बहुत प्रेम करते हैं, हमारे जीवन में आता है तो ऐसा लगता है जैसे कोई बनैला पंछी हमारे झरोखे पर आकर बैठ गया हो। जब तक वह बनैला पंछी हमारे झरोखे पर बैठा है तब तक तो हम उसके सुन्दर साथ का आनन्द उठा सकते हैं, लेकिन कुछ समय बाद उसे तो उड़ ही जाना है, क्योंकि वह आज़ाद है। और यदि हम बहुत सहृदय हुए, तो हो सकता है कि वह पंछी फिर लौट कर आए। लेकिन यदि हमने उस पंछी को पकड़ लिया और किसी पिंजरे में बन्द कर दिया, तो वह पंछी बहुत उदास हो जाएगा और हो सकता है कि वह मर भी जाए। ठीक उस सुन्दर बनैले पंछी की तरह ही ये प्रियजन भी हमारे जीवन में आते हैं, और सबसे अच्छा यही है कि जब तक वे हमारे साथ हैं, हम उस समय का आनन्द लें। और फिर जब वे किसी भी कारण से, कितने भी समय के लिए चले जाएं, तो हम समझ सकें कि ऐसा होता है। यदि हम शांत और संयमित व्यवहार करें और ऐसी अपेक्षाएं न करें कि ─ “कभी मुझे छोड़कर न जाना। मैं तुम्हारे बिना न जी सकूँगा” आदि, तो हो सकता है कि वे वापस लौट आएं। यदि वे नहीं लौटते, तो उन्हें जकड़ कर रखने की कोशिश करें या उनके सामने अपनी मांगें रखते जाने से वे हमसे दूर ही हो जाएंगे।

हम अपने जीवन की सामान्य खुशियों और भोग-विलास की प्रकृति को लेकर भ्रम में जीते हैं, फिर कोई हैरानी नहीं कि हमारे सामने समस्याएं खड़ी होती हैं। हम अपने जीवन में खुशी के पलों का आनन्द नहीं उठा पाते हैं, क्योंकि हमें चिन्ता और भय बना रहता है कि ये पल हमसे छिन जाएंगे। हमारी दशा उस कुत्ते के समान होती है जो किसी बर्तन में से खा रहा हो ─ वह खा तो रहा होता है, लेकिन साथ ही साथ इधर-उधर देखता और गुर्राता रहता है ताकि कोई नज़दीक आकर उसका भोजन न छीन ले। कभी कभी हमारी भी वैसी ही स्थिति होती है, बजाए इसके कि हमारे पास जो है हम उसका आनन्द लें और इस बात को स्वीकार करें कि जब यह दौर खत्म, तो बस खत्म समझिए। लेकिन यह बात सुनने में जितनी आसान लगती है, व्यवहार में उतनी आसान है नहीं ─ शायद सुनने में भी यह बात उतनी आसान न हो ─ लेकिन इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है, जीवन की स्थितियों को अलग नज़रिए से देखने के लिए अभ्यस्त होने की आवश्यकता पड़ती है।

हमारी समस्याओं का यथार्थ समापन

बुद्ध ने कहा कि हमारी समस्याओं को सदा के लिए समाप्त करना सम्भव है, और ऐसा करने के लिए हमें समस्याओं को उत्पन्न करने वाले कारणों को दूर करना होगा। यह दृष्टिकोण बहुत विवेकपूर्ण और तर्कसंगत है। यदि ईंधन ही नहीं रहेगा तो आग भी नहीं लगेगी। और बुद्ध ने कहा कि इन समस्याओं से इस प्रकार मुक्त होना सम्भव है कि वे दुबारा न लौट सकें।

हम इन समस्याओं से केवल अस्थायी मुक्ति पाकर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहते हैं, है न? यह तो निद्रामग्न हो जाने जैसा है ─ जब आप निद्रामग्न होते हैं तो आपको दूसरों के साथ अपने सम्बंधों में खटास की समस्याएं नहीं सताती हैं। यह तो सही समाधान नहीं हुआ, क्योंकि जैसे ही आप नींद से जागते हैं, समस्या आपके सामने पुनः प्रकट हो जाती है। यह कुछ छुट्टी पर कहीं चले जाने के जैसा है, लेकिन छुट्टी खत्म होने पर आपको घर वापस लौटना पड़ता है, और जब आप वापस घर लौटते हैं तो समस्याएं जस की तस मिलती हैं। इसलिए छुट्टी पर चले जाना सर्वोत्तम हल नहीं है, कोई स्थायी समाधान नहीं है।

और, बुद्ध यह भी नहीं कह रहे थे कि आप चुपचाप अपनी समस्याओं को स्वीकार कर लें और समस्याओं में ही जीते रहें, क्योंकि यह भी कोई अच्छा समाधान नहीं है। क्योंकि वैसा करने से हम स्वयं को असहाय महसूस करते हैं ─ जहाँ हमारे हाथ में कुछ नहीं है, इसलिए हम हार मान लेते हैं और स्थिति को बदलने का प्रयास भी नहीं करते। अपनी समस्याओं से जूझकर उन पर विजय पाने का प्रयास करना बहुत महत्वपूर्ण है। यदि हम अपने प्रयत्न में बहुत सफल न भी हो पाएं तब भी हमें यह तसल्ली रहती है कि कम से कम हमने प्रयास तो किया।

समस्याओं को समाप्त करने के लिए पद्धतियाँ

लेकिन यदि हम सचमुच अपनी समस्याओं का अन्त करना चाहते हैं, उनका यथार्थ समापन चाहते हैं, तो बुद्ध ने इसके लिए एक चौथे सत्य के बारे में बताया था, जो यह है कि हमें समस्याओं के मूल कारण, जो कि हमारा भ्रम है, से मुक्त होने के लिए किसी पद्धति का पालन करना होगा ताकि हम सम्यक ज्ञान हासिल कर सकें। लेकिन यदि हमें इस सम्यक ज्ञान का सदा स्मरण न रहे तो उसे हासिल कर लेना मात्र ही काफ़ी नहीं है, इसलिए हमें अपनी एकाग्रता को विकसित करना होगा। लेकिन हमारी एकाग्रता बनी रहे और सम्यक ज्ञान पर हमारा ध्यान केन्द्रित रहे, इसके लिए हमें आत्मानुशासन को विकसित करना होगा। इस प्रकार समस्याओं की रोकथाम के लिए हम जिस बौद्ध पद्धति को अपनाते हैं उसके अनुसार हम अनुशासन, एकाग्रता, और सम्यक ज्ञान के मार्ग का पालन करें।

इसके अलावा, हमारी स्वार्थपरायणता हमारी समस्याओं के सबसे बड़े कारणों में से एक है। हमारी स्वार्थपरायणता एक बहुत हद तक वास्तविकता के बारे में हमारे भ्रम पर आधारित होती है, क्योंकि कहीं न कहीं हम ऐसा मानते हैं कि इस दुनिया में एक अकेले हमारा ही अस्तित्व महत्वपूर्ण है। यदि हम इस बात को स्वीकार कर भी लेते हैं कि दूसरों का भी अस्तित्व है, तब भी स्पष्ट तौर पर हम यह मानते हैं कि हम ही जगत के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, और हम इस सृष्टि का केन्द्र बिन्दु हैं। इस मिथ्या धारणा के कारण हम मानते हैं कि, “सदा मेरी मर्ज़ी चलनी चाहिए। मैं जो चाहूँ वह मुझे हमेशा मिलना ही चाहिए,” और यदि ऐसा नहीं होता है तो हम बेहद दुखी हो जाते हैं।

लेकिन यथार्थ के प्रति यह एक बहुत ही भ्रमित दृष्टिकोण है क्योंकि मेरे अन्दर ऐसा कोई विशेष गुण नहीं है। हम सभी इस दृष्टि से एक समान हैं कि हम सभी आनन्द चाहते हैं, कोई भी दुख नहीं चाहता; हर कोई चाहता है कि उसे उसकी इच्छित वस्तु मिले और कोई यह नहीं चाहता कि उसकी इच्छित वस्तु उसे प्राप्त न हो। और, हम सभी को मिलकर साथ रहना है, क्योंकि हम सभी एक ही ग्रह पर साथ रहते हैं। इसलिए हमें अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्ति या दुखमोक्ष के साधनों के साथ प्रेम और करुणा, दूसरों को महत्व देने और परोपकारिता के भावों को भी जोड़ना होगा। जैसे हम दूसरों से सहायता की अपेक्षा रखते हैं, ठीक उसी प्रकार दूसरे भी हमसे सहायता पाने की अपेक्षा करते हैं।

अशांत करने वाले मनोभावों पर नियंत्रण

यह बात सच है कि हर कोई संत या बोधिसत्व नहीं होता। प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी स्तर पर भ्रमित है। भ्रमित होने के कारण हम अशांत करने वाले मनोभावों के प्रभाव में व्यवहार करते हैं। उदाहरण के लिए यदि मैं ऐसा समझने लगूँ कि मैं इस सृष्टि का केन्द्र बिन्दु हूँ और मैं ही सबसे महत्वपूर्ण हूँ, तो इसके साथ ही असुरक्षा का भाव जन्म लेता है, है न? जब आप भ्रम में होते हैं तो आप सोचते हैं, “मुझे ही तो सबसे महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए, लेकिन लोग हमेशा मेरे साथ वैसा व्यवहार नहीं करते हैं।” हमारी इस भावना के पीछे असुरक्षा का भाव होता है।

जब हम स्वयं को असुरक्षित अनुभव करें तो हमें क्या करना चाहिए ─ कौन सी विधि को अपना कर हम अधिक सुरक्षित अनुभव कर सकते हैं? एक तरीका तो यह है: “यदि मैं अपने आस पास बहुत से साधन जुटा लूँ तो शायद में सुरक्षित हो जाऊँगा। मेरे पास पर्याप्त धन हो, लोग मुझ पर ध्यान दें या मुझसे प्रेम करें, तो इससे में खुश हो जाऊँगा।” लेकिन जैसा कि हमने पहले कहा था, इस प्रकार की खुशी की प्रकृति ही ऐसी है कि यह हमें कभी पर्याप्त ही नहीं लगती, हम कभी संतुष्ट नहीं होते, हमें सदा और खुशी की आवश्यकता होती है।

सोच कर देखिए, यह बड़ी अर्थपूर्ण बात है। क्या आप सचमुच यह चाहते हैं कि आपका प्रिय आपसे सिर्फ एक बार “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ” कहे? यदि वह सिर्फ एक बार ऐसा कह दे तो क्या इतना काफी है ─ क्या उसे बार बार दोहराए जाने की आवश्यकता नहीं है? हम इसे बार बार सुनना चाहते हैं, क्या ऐसा नहीं है? और ऐसी नौबत कभी नहीं आती है कि हम कह सकें, “ठीक है, तुम्हें बार बार ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है। मुझे मालूम है कि तुम्हें मुझसे प्रेम है।” इसलिए जब हम लोभ की बात करते हैं, तो हमारा आशय भौतिक वस्तुओं और धन के लोभ से ही नहीं होता है। हमें प्रेम का भी लोभ होता है, और हममें से अधिकांश दूसरों का ध्यान पाने के विशेष तौर पर लोभी होते हैं। छोटे बच्चों में हम इस प्रवृत्ति को देखते हैं। तो यह एक तरीका हुआ: किसी प्रकार हम अपने आस पास पर्याप्त साधन और वस्तुएं जुटा लें, तो उससे हम सुरक्षित हो जाएंगे। और यह तरीका कभी कारगर नहीं होता है।

अगली प्रक्रिया क्रोध और नफरत की होती है: “यदि मैं उन चीज़ों को अपने से दूर रख सकूँ जिनके कारण मैं स्वयं को असुरक्षित महसूस करता हूँ, तो मैं सुरक्षित हो जाऊँगा।” लेकिन हम कभी सुरक्षित अनुभव नहीं करते; हमारे मन में सदा असुरक्षा का भाव बना रहता है; और हम हमेशा यह सोच कर सशंकित रहते हैं कि कहीँ कोई कुछ ऐसा न कर दे जो हमें पसन्द न हो ─ और यदि ऐसा हो जाए तो हम क्रोधित हो जाते हैं और उस व्यक्ति को अपने से दूर खदेड़ देते हैं। कभी कभी यह स्वयं हमारे लिए ही बहुत नुकसानदेह हो सकता है। मुझे एक ऐसे सम्बंध का उदाहरण याद आता है जिसमें हमारे विचार से दूसरा व्यक्ति हमारे ऊपर बराबर ध्यान नहीं दे रहा होता है, हमें पर्याप्त समय नहीं दे रहा होता है, और इसलिए हम उस पर बरस पड़ते हैं। हम क्रोधित हो जाते हैं और उस व्यक्ति पर चिल्लाने लगते हैं, “तुम्हें मुझ पर अधिक ध्यान देना चाहिए! तुम्हें मेरे साथ अधिक समय बिताना चाहिए!” आदि। इसका नतीजा क्या होता है? अक्सर वह व्यक्ति हमसे और दूरी बना लेता है। या वह हम पर अहसान करने के लिए कुछ समय तक हमारे पास रहता है, लेकिन आप महसूस कर सकते हैं कि वह व्यक्ति ऐसा करते हुए सहज नहीं है। हम ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं कि यदि हम किसी व्यक्ति पर क्रोधित होंगे तो वह हमें और अधिक पसन्द करने लगेगा? बिल्कुल बेतुकी बात है। स्वयं को सुरक्षित बनाने के लिए हम जिन प्रक्रियाओं को अपनाते हैं उनमें से बहुत सी दरअसल स्थिति को और बिगाड़ने वाली होती हैं।

एक और प्रक्रिया जो हम अपनाते हैं वह यह है कि हम अपने आस पास दीवारें खड़ी करके घेराबन्दी कर लें। यह हमारा भोलापन ही है कि हम समझते हैं कि यदि हम समस्या का सामना नहीं कर रहे हैं तो या तो समस्या है ही नहीं या फिर वह स्वतः ही हल हो जाएगी। “मैं इसके बारे में सुनना नहीं चाहता” ─ इस प्रकार का रवैया अपना कर हम अपने आस पास एक दीवार खड़ी कर लेते हैं। लेकिन इस प्रकार का भोलापन भी हमारे काम नहीं आता। समस्या को अनदेखा करने से, उसे स्वीकार न करने से समस्या खत्म तो नहीं हो जाएगी।

अशांत करने वाले इन मनोभावों का प्रभाव यह होता है कि हम अनेक प्रकार से विनाशकारी व्यवहार करने लगते हैं। हम चीखते-चिल्लाते हैं। हम किसी को चोट भी पहुँचा सकते हैं। यदि आपको महसूस हो, “मैं कितना गरीब हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है,” तो आप यह सोचकर चोरी कर सकते हैं कि ऐसा करने से शायद आपकी समस्या हल हो जाएगी। मुझे उस समय का एक उदाहरण याद आता है जब में कई वर्षों तक भारत में रहा था। भारत में कीड़े-मकोड़े बहुत हैं ─ ढेरों-ढेर कीड़े मकोड़े, और हर तरह के कीड़े मकोड़े पाए जाते हैं। और आप उन सब को मार नहीं सकते हैं; कोई उपाय नहीं है कि आप ऐसा करने में कामयाब हो जाएं। एकमात्र समाधान यही है कि आप उनके साथ जीने की आदत डाल लें। यदि आपको अपने कमरे में कीड़े पसन्द नहीं हैं तो आप मच्छरदानी लगा कर सोएं ─ आपके चारों ओर एक जाल होगा और आप उसके भीतर सुरक्षित होंगे। यह एक शांतिपूर्ण समाधान है, बजाए इसके कि आप एक शिकार अभियान पर निकलें और कमरे के सभी मच्छरों को मारते फिरें, और आपकी सारी रात जागते ही बीतेगी क्योंकि मच्छर तो खत्म नहीं होंगे, और मच्छर कमरे में आते रहेंगे। दरवाज़े के नीचे से खुली जगह छूट ही जाती है, या फिर खिड़कियाँ ठीक से बन्द नहीं होती हैं ─ इसलिए और नए मच्छर आते ही रहेंगे। लेकिन विनाशकारी व्यवहार करने के लिए यह आवेग तो उत्पन्न होता ही है: “मुझे इन मच्छरों से पीछा छुड़ाना ही होगा।”

विनाशकारी व्यवहार के कई रूप हो सकते हैं। झूठ बोलना, कठोर भाषा का प्रयोग, व्यभिचार, बलात्कार ─ ये सभी विनाशकारी व्यवहार के रूप हैं। और जब हम विनाशकारी व्यवहार करते हैं, तो इससे दुख उत्पन्न होता है ─ न केवल दूसरों के लिए, बल्कि विशेष रूप से अपने लिए भी दुख उत्पन्न होता है। यदि आप देखें तो बौद्ध धर्म में हत्या न करने पर बहुत बल दिया गया है। हम बात कर रहे थे कि हमें जो पसन्द नहीं होता यदि हम उसे मार देने की आदत बना लेते हैं, जैसा कि हमने मच्छरों के उदाहरण में देखा ─ तो यह हमारी पहली सहज प्रतिक्रिया होती है, है न? और बात सिर्फ मार डालने भर की नहीं है। जो हमें पसन्द न हो, उस पर हम बड़े हिंसक ढंग से टूट पड़ते हैं ─ यह हिंसा शब्दों के माध्यम से हो सकती है, शारीरिक या भावनात्मक स्वरूप की हो सकती है ─ लेकिन हम शांत चित्त से उससे निपटने का प्रयत्न नहीं करते।

कभी कभी ऐसा भी हो सकता है कि हत्या करना आवश्यक हो जाए। उदाहरण के लिए फसलों को नष्ट करने वाले कीड़ों और रोग फैलाने वाले कीटों आदि को मारना आवश्यक हो सकता है। बौद्ध धर्म धार्मिक कट्टरपन की शिक्षा नहीं देता है। लेकिन हमें नादानी से काम नहीं लेना चाहिए। हमें इस काम को क्रोध या घृणा के भाव के बिना करना चाहिए ─ “मुझे इन मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों से नफरत है!” और आपको उस कृत्य के नकारात्मक परिणामों से अनजान नहीं बने रहना चाहिए। एक सामान्य उदाहरण लें: यदि हम सब्ज़ियों और फलों को बचाने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं, तो याद रहे कि उन फलों और सब्ज़ियों को हम ही खाने वाले हैं, और कीटनाशकों के प्रयोग से बीमारियाँ हो सकती हैं। तो, हमारे कृत्यों के दुष्प्रभाव भी होते हैं। हम वापस अपने मुद्दे पर लौटें, हम कह रहे थे कि अनुशासन, एकाग्रता, और सम्यक ज्ञान के साथ साथ प्रेम और करुणा वे विधियाँ हैं जिनका प्रयोग हम अशांत करने वाले मनोभावों को नियंत्रित करने के लिए करते हैं।

नैतिक आत्मानुशासन

जीवन में समस्याओं से बचने के लिए इन निवारक उपायों को कैसे व्यवहार में लाया जाए? पहले स्तर पर जो काम हम करते हैं वह यह है कि हम अपने व्यवहार में नैतिक आत्मानुशासन को लागू करते हैं, जिसका अर्थ यह है कि हम विनाशकारी व्यवहार करने से बचें। विनाशकारी व्यवहार करने का अर्थ है कि हम क्रोध, लोभ, आसक्ति, ईर्ष्या, अज्ञान, अहंकार आदि जैसे अशांत करने वाले मनोभावों के प्रभाव में व्यवहार करते हैं। यानी जब हम विनाशकारी व्यवहार करने का मन बना लेते हैं, तो हम स्पष्ट निर्णय कर लेते हैं, “नहीं, मैं इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहता।”

जब मैं आपकी किसी भूल के लिए आपके ऊपर चीखना-चिल्लाना चाहता हूँ, तो मुझे मालूम होता है कि चीखने-चिल्लाने से स्थिति खराब ही होगी। मुझे आपकी गलती के लिए आपको टोकना पड़ सकता है, या जो गलती हुई उसे ठीक करना पड़ सकता है, लेकिन चीखने-चिल्लाने से तो स्थिति बिगड़ेगी ही। खास तौर पर आपको भला बुरा कहना और धिक्कारना तो बिल्कुल ही काम नहीं आएगा। तो, आत्मानुशासन का अर्थ यह है कि हम विनाशकारी व्यवहार करने से पहले ही जल्द से जल्द यह भाँप लें कि हम कब आवेग के वशीभूत होकर विनाशकारी व्यवहार करने वाले हैं। हमारे भीतर एक आवेग उठता है कि हम वैसा व्यवहार करें, उससे पहले ही हम स्थिति को भाँप कर सोचते हैं: “ऐसा व्यवहार करने से कोई लाभ नहीं होगा,” और हम अपने अन्दर की उस तीव्र भावना को नियंत्रित करके अपने आप को वैसा व्यवहार करने से रोक लेते हैं।

अब यहाँ हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप गुस्से के गुबार को अपने अन्दर दबा कर रखें, क्योंकि वह आपको अन्दर ही अन्दर कमज़ोर करता है और आप उसे तब तक दबाए रहते हैं जब तक कि आपके अन्दर का क्रोध फट न पड़े। यह तो सही तरीका नहीं है। और यदि हम अपने क्रोध को सम्भाल नहीं पाए हैं, और यदि हमारा क्रोध भीतर ही भीतर बढ़ रहा है, तो हमें उसे दूसरों पर नहीं निकालना चाहिए। और, जहाँ तक दीवार में घूँसा मारकर अपना गुस्सा निकालने की बात है, उससे तो आपका हाथ ही ज़ख्मी होगा, इसलिए यह तरीका मूर्खतापूर्ण है। इसलिए अपने गुस्से को बाहर निकालने का कोई और तरीका अपनाएं।तकिए को घूँसा मारें या पूरे घर के फर्श को धोएं ─ क्रोध और कुण्ठा को नियंत्रित करने के लिए इस प्रकार की विधि का प्रयोग करना और श्रमसाध्य घरेलू काम करना या लम्बी दौड़ पर जाना या व्यायामशाला में कड़ी कसरत करना हमारे क्रोध और कुण्ठा से उत्पन्न ऊर्जा को खर्च करने में बड़ा सहायक होता है।

सचेतनता और एकाग्रता

यदि हम इस प्रकार से आरचरण करने के अभ्यस्त हो जाएं कि जब हम विनाशकारी मनोभावों के प्रभाव में आचरण करने के लिए प्रवृत्त हों, और हम स्वयं को वैसा व्यवहार करने से रोक सकें तो इसे हम “विवेकी सचेतनता” कहते हैं। हम सूक्ष्मभेद करते हैं कि क्या लाभदायक है और क्या नुकसानदेह है, और इस क्षमता के आधार पर हम क्रोध को अपने अन्दर दबा कर रखने के बजाए स्वयं को संयत रखते हैं। इस प्रक्रिया में जो हम करते हैं सामान्यतया उसका अनुवाद “सचेतनता” के रूप में किया जाता है। इसका अर्थ है “याद रखना”। यह एक प्रकार का मानसिक गोंद है जो अनुशासन से आबद्ध बने रहने में सहायता करता है ─ मैं क्या करना चाहता हूँ, मैं जीवन में क्या बनना चाहता हूँ, मैं अपने जीवन में किस प्रकार का आरचण करना चाहता हूँ ─ ताकि हम उस अनुशासन से डिगें नहीं, उसे भूलें नहीं। यही सचेतनता है। इसका अर्थ होता है “सक्रियतापूर्वक स्मरण रखना”।

तो इसके लिए हम और अधिक जागरूक रहने का प्रयत्न करते हैं। दरअसल “बुद्ध” शब्द का अर्थ होता है “ऐसा व्यक्ति जो पूर्णतः जाग्रत है”। हम इस बात के प्रति सचेत रहने का प्रयत्न करते हैं कि हमारे भीतर क्या मनोभाव उत्पन्न हो रहे हैं, हमारे चित्त में कौन से ऐसे उद्वेग उत्पन्न हो रहे हैं जो हमें ऐसा या व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं, और फिर हम उनके दास बन जाने के बजाए यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि विवेक और बुद्धि की सहायता से हम यह तय कर सकते हैं कि हम कैसा आचरण करें। यदि मेरा मिज़ाज अच्छा न हो, तो उसे बदला जा सकता है; अपनी मनोदशा को बदलने के लिए मैं कोई यत्न कर सकता हूँ।

कभी कभी खराब मिज़ाज को ठीक करने का उपाय बड़ा सरल होता है। एक सबसे सरल उपाय यह है कि “चिड़चिड़े बच्चे को सुला दिया जाए”। कई बार हम किसी ऐसे छोटे बच्चे की तरह होते हैं जो बहुत देर से जागा हुआ हो और रोए जा रहा हो। अक्सर जब हमारा मूड खराब होता है तो हमारी भी यही स्थिति होती है। इसलिए, ऐसी स्थिति में लेट जाइए ─ और थोड़ी देर की नींद ले लीजिए। नींद के बाद जब हम जागते हैं तो अक्सर हमारी मनःस्थिति कहीं बेहतर होती है।

या, यदि किसी के साथ आपका विवाद हो रहा हो, और झगड़ा बढ़ रहा हो ─ आप समझ सकते हैं कि ऐसी स्थिति में न तो आप उसकी बात सुनने के लिए तैयार होते हैं और न ही वह व्यक्ति आपकी बात को सुन रहा होता है। उस स्थिति में आगे चर्चा को रोक देना ही अच्छा ─ “चलो इस चर्चा को यहीं खत्म करें और बाद में जब हम दोनों संयत हो जाएंगे, तब इस बारे में चर्चा कर लेंगे” ─ और फिर घूमने के लिए चले जाएं, या अपने चित्त को शांत करने के लिए ऐसा ही कोई दूसरा काम करें।

ये बहुत साधारण उपाय हैं। बौद्ध धर्म में दरअसल इससे कहीं अधिक गहरे प्रभाव वाली विधियों की शिक्षा दी जाती है, लेकिन यह तो सिर्फ़ शुरुआत है। हमें ऐसी विधियों के प्रयोग से शुरुआत करनी चाहिए जिन्हें हम सचमुच लागू कर सकते हैं। लेकिन इसके पीछे की सैद्धांतिक भावना महत्वपूर्ण है, और सिद्धांत यह है कि समस्या के कारण को तलाश किया जाए और फिर समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए कोई उपाय किया जाए। समस्या का शिकार बनकर न जिएं। एक प्रकार से अपने जीवन की घटनाओं पर अपना नियंत्रण स्थापित करें।

अब, यदि हम अपनी सचेतनता को इस सीमा तक विकसित कर सकें कि हम अपने इस विवेक पर अडिग रह सकें कि हमारे व्यवहार में क्या उपयोगी है और क्या नुकसानदेह है, यदि हम घटनाओं पर ध्यान केन्द्रित कर पाएं और यह याद रखे कि हम कैसा व्यवहार करना चाहते हैं और यदि हम वैसा न कर रहे हों तो अपने व्यवहार को बदल कर ठीक कर लें ─ यदि हम अपनी शारीरिक चेष्टाओं और वाणी के व्यवहार पर ऐसा नियंत्रण स्थापित कर लें तो समझिए कि हमने वह क्षमता विकसित कर ली है कि हम अपने चित्त, अपने विचारों को नियंत्रित कर सकें।

तो जैसे ही हमारे चिन्ता के विचारों की श्रृंखला शुरू होती है, या जब हम सोचना शुरू करते हैं: “मैं कितना अभागा हूँ। कोई मुझे नहीं चाहता,” आदि ─ तुरन्त हम अपने आप से कहते हैं, “छोड़ो भी! मैं आत्म-ग्लानि और चिन्ता के इस चक्र में नहीं फँसना चाहता। इससे तो मुझे दुख ही होगा,” और ऐसा विचार करके हम अपना ध्यान अधिक सकारात्मक बातों पर केन्द्रित करते हैं। हम अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को बैठे-बैठे चिन्ता करने के बजाए कहीं ज़्यादा सकारात्मक कार्यों में लगा सकते हैं। बैठकर यह चिन्ता करने के बजाए कि सब कुछ कितना भयावह हो सकता है, ऐसी बहुत सी सकारात्मक बाते हैं जिनके बारे में हम विचार कर सकते हैं। क्योंकि, जैसाकि आप देख सकते हैं, यहाँ हम अपनी एकाग्रता को विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि जब हमारा ध्यान भटकने लगे तो हम उसे पुनः केन्द्रित कर सकें।

उदाहरण के लिए, जब हम किसी व्यक्ति से बात कर रहे होते हैं और तभी हमारा ध्यान भटकने लगता है ─ हम सोचने लगते हैं: “यह व्यक्ति कब बोलना बन्द करेगा?” या “आज रात के भोजन में मुझे क्या खाना है,” या ऐसा ही कुछ भी ─ और हम उस व्यक्ति की बात पर ध्यान देना बन्द कर देते हैं, या मन ही मन कह रहे होते हैं: “इसने अभी जो कहा वह बहुत मूर्खतापूर्ण है,” और फिर वहीं से हम अपने ध्यान को वापस लाते हैं और उस व्यक्ति की बात को सुनने पर केन्द्रित करते हैं।

एकाग्रता का यह एक बहुत ही व्यावहारिक प्रयोग है, लेकिन इसके लिए अनुशासन आवश्यक होता है; और हम इस अनुशासन को पहले अपने कर्म और वाणी में विकसित करते हैं। एक बार जब आप इस कौशल को विकसित कर लेते हैं, अपने ध्यान को पुऩः केन्द्रित करना और व्यवहार के विपथन की भूल को सुधारना सीख लेते हैं, तो फिर आप इस कौशल को हर प्रकार की स्थितियों में लागू कर सकते हैं। और यह सचमुच बहुत उपयोगी है। उदाहरण के लिए आप अपनी शारीरिक मुद्रा के प्रति सजग रहना शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए यदि आपके कंधों में खिंचाव हो या गर्दन तनाव से अकड़ी हुई हो आदि ─ यदि आप सजग होते हैं और इस ओर आपका ध्यान जाता है तो आप अपने कंधों को ढीला छोड़ते हैं और आराम की मुद्रा में आ जाते हैं। बात सिर्फ इतनी भर है कि हम ध्यान दें, याद रखें और स्थिति को सुधारने के लिए कुछ कार्रवाई करें। या जब आप बहुत उत्तेजित होने लगते हैं, और जब यह आचरण स्थिति के अनुसार बिल्कुल अनुपयुक्त होता है और आप ऊँचे और आक्रामक स्वर में किसी से बात करने वाले होते हैं, तभी आप स्थिति को भांप लेते हैं और व्यवहार को नियंत्रित करके बदल देते हैं। आप संयत हो जाते हैं, जैसे आप अपने कंधे पीछे की ओर करके आराम की मुद्रा में हो जाते है, लेकिन ऐसा आप एक प्रकार के ऊर्जा के स्तर पर करते हैं, एक भावनात्मक स्तर पर करते हैं।

धर्म की इन विधियों को जीवन के आचरण में लागू करने का यही भेद है। इन विधियों को याद रखिए और इन्हें लागू करने के लिए आवश्यक अनुशासन बनाए रखिए। और ऐसा आप इसलिए नहीं करते हैं कि आप दूसरों की नज़रों में अच्छा बनना चाहते हैं या आप अपने गुरु को प्रसन्न करना चाहते है, या इसी तरह का कोई अन्य कारण है। बल्कि ऐसा आप इसलिए करते हैं क्योंकि समस्याओं से ─ कठिनाइयों से, बचना चाहते हैं ─ क्योंकि आप जानते हैं कि यदि आप कोई कदम नहीं उठाएंगे तो आप अपने ही लिए दुख का कारण बनेंगे, और वह सब आपको अच्छा नहीं लगेगा, ऐसा है न? इसलिए हमें एकाग्रता के रूप में आत्मानुशासन को अपनी मानसिक चेष्टाओं पर लागू करना चाहिए ─ अपने मनोभावों पर नियंत्रण की दृष्टि से भी लागू करना चाहिए। हालाँकि भावनाओं को नियंत्रित करना कहीं ज़्यादा नाज़ुक, कहीं ज़्यादा कठिन होता है। लेकिन, जैसा मैंने पहले कहा, यदि आप ज़्यादा उत्तेजित होने लगें, तो आप अपने आप को संयत कर सकते हैं।

सम्यक बोध

एक बार जब आप अपनी एकाग्रता को साध लेते हैं, कम से कम कुछ हद तक, तो फिर आप अपने आस पास के घटनाचक्र के सम्यक बोध पर अपनी एकाग्रता बनाए रखना चाहते हैं। वास्तविकता को लेकर हमारे मन में तमाम तरह के भ्रम होते हैं ─ हमारे अस्तित्व का आधार क्या है, अन्य लोगों के अस्तित्व का आधार क्या है, इस जगत के अस्तित्व का आधार क्या है ─ और इस भ्रम के कारण हमारे मन में अनेक प्रकार की छवियाँ बनी होती हैं जो दरअसल अवास्तविक होती हैं, है न? हम अपने मन में यह छवि बना सकते हैं: “मैं नाकारा हूँ। मैं असफल हूँ।” या हम यह छवि बना सकते हैं: “दुनिया में मुझसे बेहतर कोई नहीं है।” हम अपने मन में सोच सकते हैं: “मैं अभागा हूँ। कोई मुझे नहीं चाहता।” लेकिन लेकिन यदि हम सचमुच अपने जीवन से जुड़ी हर बात का इस प्रकार विश्लेषण करने लगे कि मेरी माँ को कभी मुझसे प्रेम नहीं था, मेरा पालतू कुत्ता तक मुझसे प्रेम नहीं करता था ─ कोई भी मुझसे प्रेम नहीं करता था, तो ऐसा तो शायद ही सच हो।

तो, हम अपने मन में इस प्रकार की कल्पनाएं करते हैं और इन कल्पनाओं को सच मान बैठते हैं; यह स्थिति बहुत भयावह है। हम मान कर चलते हैं कि हम किसी नियत कार्य के लिए देर से पहुँच सकते हैं, या कहीं किसी से मिलने का वादा करने के बाद न पहुँचें तो कोई फर्क नहीं पड़ता है: “तुम्हारे अन्दर भावनाएं नहीं हैं,” है न? और इस प्रकार हम दूसरों के प्रति बिल्कुल बेपरवाह हो जाते हैं। लेकिन, जैसे मेरी अपनी भावनाएं हैं, वैसे ही भावनाएं तो हर किसी के मन में हैं। और कोई भी नहीं चाहता कि उसकी अनदेखी की जाए। कोई भी यह पसन्द नहीं करता कि कहीं पहुँचने का वादा करने के बाद दूसरा व्यक्ति इत्तिला न करे या मिलने के लिए देर से पहुँचे। कोई भी ऐसा व्यवहार पसन्द नहीं करता है। ऐसी स्थिति में हमें करना यह होता है कि हम अपनी कल्पनाओं के जाल को काट कर अपनी इस भ्रामक सोच से बाहर निकलें कि हमारे लापरवाह व्यवहार से किसी को चोट नहीं पहुँचती है, क्योंकि यही तो हमारी समस्याओं का सबसे गम्भीर कारण है: “मैं इस जगत का केन्द्र बिन्दु हूँ। हमेशा सब कुछ मेरी मर्ज़ी के मुताबिक होना चाहिए। मैं ही सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ।” ज़ाहिर है कि यह छवि हमारी कल्पना मात्र है। कोई भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन अपनी कल्पना को यथार्थ मान कर हम स्वार्थपरायण हो जाते हैं। इसलिए, यदि हम स्वार्थ पर विजय पाना चाहते हैं तो हमें अपनी कल्पना को विखण्डित करना होगा और उसके आधार पर अपनी छवि को गढ़ना बन्द करना होगा। यदि ऐसा लगता भी है कि मैं इस जगत का केन्द्र बिन्दु हूँ और अकेले मेरा अस्तित्व ही मायने रखता है (क्योंकि जब मैं अपनी आँखें बन्द करता हूँ तो मेरे मस्तिष्क में यह स्वर सुनाई देता है, और चूँकि मुझे कोई और नहीं दिखाई देता, इसलिए मुझे ऐसा आभास होता है कि मेरे अलावा और किसी का अस्तित्व नहीं है), जब ऐसा आभास हो तो हमें स्मरण रहना चाहिए कि यह केवल भ्रम है और हमें प्रयास करना चाहिए कि हम इस पर यकीन न करें: “यह वास्तविकता नहीं है। केवल ऐसा होने का आभास होता है।“

बुद्ध ने कहा था कि इस बोध को हमेशा कायम रखना ही हमारी समस्याओं के यथार्थ समापन का सच्चा मार्ग है। यदि हम सदैव इस सम्यक बोध को बनाए रख सकें तो हमें कोई भ्रम नहीं होगा। और यदि हमें भ्रम नहीं होगा, तो हमें क्रोध नहीं होगा, आसक्ति, लोभ आदि नहीं होंगे। और यदि हमारे मन में ये अशांत करने वाले मनोभाव नहीं होंगे तो हम विनाशकारी व्यवहार नहीं करेंगे। और यदि हम विनाशकारी व्यवहार न करें तो हम दूसरों के लिए और स्वयं अपने लिए अनेकानेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न नहीं करेंगे। बौद्ध दर्शन में जीवन की समस्याओं को हल करने की यही मूल पद्धति है।

यदि हम सम्बंधों में मधुरता चाहते हैं, तो हमें इन बातों को स्वीकार करना होगा:

  • मैं एक मनुष्य हूँ। आप भी मनुष्य हैं। हम सभी की भावनाएं आदि एक जैसी हैं।
  • सभी के अन्दर कुछ ख़ूबियाँ हैं। सभी के अन्दर कमज़ोरियाँ भी हैं। यह बात मेरे ऊपर भी लागू होती है, और आपके ऊपर भी।
  • हममें से कोई भी सफेद घोड़े पर सवार मनमोहक राजकुमार या राजकुमारी नहीं है।

क्या आपके मन की कल्पनाओं में ऐसी छवि है? हम हमेशा किसी सर्वगुण सम्पन्न संगी की तलाश में रहते हैं, जो एक सफ़ेद घोड़े पर बैठ कर आएगा, लेकिन यह तो केवल परी कथाओं की कल्पना है। यथार्थ में इसका अस्तित्व नहीं है, लेकिन हम अपने मन में ऐसी छवि गढ़ते हैं। उस काल्पनिक परी कथा में अपने यकीन के कारण हम ऐसा सोचते हैं कि अमुक व्यक्ति वह राजकुमार या राजकुमारी साबित होगा, और जब वह वैसा नहीं निकलता या निकलती है तो उस से रुष्ट हो जाते हैं, और कभी कभी उसे ठुकरा भी देते हैं। और फिर हम अगले सम्भावित संगी के बारे में कल्पना करने लगते हैं कि वह राजकुमार या राजकुमारी साबित होगा। लेकिन परी कथा का वह राजकुमार या राजकुमारी हमें मिलता नहीं है, क्योंकि यथार्थ में ऐसी कोई चीज़ है ही नहीं।

इसलिए, यदि हम स्वस्थ सम्बंध कायम करना चाहते हैं तो हमें वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए। जैसा मैंने पहले कहा, वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर खूबियाँ होती हैं और प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर कमज़ोरियाँ होती हैं, इसलिए हमें सबके साथ मिलजुल कर रहना सीखना चाहिए, और कोई भी एक व्यक्ति इस सृष्टि का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं है। और इसके अलावा कुछ सामान्य शिक्षाएं हैं जो सभी धर्मों और मानवतावादी दर्शनों में सिखाई जाती हैं, जैसे कि दूसरों प्रति दया भाव रखें, दूसरों का ध्यान रखें, प्रेम भाव रखें, धैर्यवान बनें, उदार बनें, क्षमाशील बनें। प्रत्येक धर्म और प्रत्येक मानवतावादी दर्शन यही शिक्षा देता है, और बौद्ध धर्म की भी यही शिक्षा है।

कार्य स्थल पर भी हमारे सम्बंधों और व्यवहार पर भी यही सिद्धांत लागू होते हैं। यदि आप अपने कार्यालय में अपने सहकर्मियों (या यदि आप नियोक्ता हैं, तो आप अपने कर्मचारियों) के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार करते हैं, तो पूरा कारोबार निर्बाध चलता है। यदि आप किसी स्टोर में काम करते हों और ग्राहकों के साथ उदारता और खुशदिली से पेश आते हों तो पूरा वातावरण खुशनुमा हो जाता है, है न? और यदि आप अपने आचरण में ईमानदारी बरतें ─ दूसरों के साथ छल आदि का व्यवहार न करें तब भी सब कुछ बहुत अच्छे ढंग से चलता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप मुनाफ़ा कमाने का प्रयास न करें या अपनी आजीविका न चलाएं, बल्कि मुद्दा यह है कि हम ऐसा करने के प्रयास में लोभी न बनें।

और जब दूसरे लोग हमारे साथ छल करते हैं ─ क्योंकि उन्हें लगता है कि हर कोई तो वैसा नहीं करेगा ─ तब? लेकिन बौद्ध नज़रिए से हम ऐसा नहीं कहेंगे कि वे लोग बुरे हैं; हम तो कहेंगे कि वे लोग भ्रमित हैं। उन्हें भ्रम है। वे लोग नहीं समझ पाते हैं कि ऐसा व्यवहार करने से उनके लिए और अधिक समस्याएं खड़ी होंगी: कोई भी उन्हें पसन्द नहीं करेगा। इसलिए ऐसे लोग घृणा के बजाए हमारी दया और करुणा के पात्र हैं। यदि हम ऐसे लोगों को करुणा की दृष्टि से देखते हैं और उनके प्रति धैर्यशील बने रहते हैं तो जब ऐसे लोग हमारे साथ छल का व्यवहार करते हैं तो हमें भावनात्मक वेदना नहीं होती, और हम आगे के लिए अधिक सतर्क हो जाते हैं ताकि हम दोबारा न ठगे जाएं। लेकिन लोगों से आप और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? बहुत से लोग ऐसे होते हैं। और यही वास्तविकता है। हम एक कल्पित छवि गढ़ते हैं कि सभी ईमानदार हैं। लेकिन हर कोई तो ईमानदार नहीं है! यदि हर कोई ईमानदार हो तो बहुत अच्छा हो, लेकिन ऐसा है नहीं। इसलिए कम से कम हम तो ईमानदार बनने का प्रयास कर सकते हैं।

क्या गैर-बौद्ध इन विधियों का प्रयोग कर सकते हैं?

अब प्रश्न यह है कि इन विधियों को अपने जीवन में लागू करने के लिए क्या हमें कड़ी बौद्ध आध्यात्मिक साधना और कर्मकाण्ड आदि के मार्ग को अपनाने की आवश्यकता है? दरअसल ऐसा नहीं है। इन सभी बातों को अपने जीवन में लागू करने के लिए हमें कठोर और नियत तपश्चर्या करने की आवश्यकता नहीं है। परम पावन दलाई लामा अपने उद्बोधनों में हमेशा धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, मानव मूल्यों ─ उदारता, चैतन्य भाव, अज्ञान से दूर रहने, कल्पित छवियाँ न गढ़ने आदि की चर्चा करते हैं। ये कुछ ऐसे सामान्य सिद्धांत हैं जिनका पालन कोई भी व्यक्ति कर सकता है।

और जब हम ध्यान साधना की बात करते हैं तो केवल एक ऐसी विधि की बात कर रहे होते हैं जो हमें आसन लगाकर बैठने और इस रीति से चिन्तन करने की पद्धति से परिचित कराती है कि जब हमारा ध्यान भटकने लगे तो हम उसे पुनः केन्द्रित कर सकें। इस प्रक्रिया को आप ध्यान की अवस्था में बैठ कर किसी बुद्ध रूप पर ध्यान लगाकर या अपने श्वास पर ध्यान लगा कर कर सकते हैं, लेकिन इसी प्रक्रिया को किताब पढ़ते हुए, या भोजन पकाते हुए या कोई अन्य कार्य करते हुए भी किया जा सकता है। जब आप भोजन पका रहे हों तो अपने ध्यान को बस भोजन पकाने पर ही केन्द्रित रखें, और जब आपका ध्यान किसी और प्रकार के भ्रांतकारी विचार से भटकने लगे तो पुनः भोजन पकाने के कार्य पर ले आएं। इसके लिए औपचारिक बौद्ध ध्यान साधना आवश्यक नहीं है। ऐसे अनेकानेक तरीके हैं जिनकी सहायता से हम स्वयं को चिन्तन, आचरण आदि की इन लाभकारी विधियों से परिचित करा सकते हैं, और इसके लिए किसी प्रकार के बौद्ध अनुष्ठान या औपचारिक बौद्ध विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है।

तो, इस प्रकार हम समस्याओं से निवृत्ति के लिए अपने जीवन में धर्म ─ निवारक उपायों ─ के आचरण को अपने जीवन में लागू कर सकते हैं। क्या आपके कोई प्रश्नादि हैं?

वीडियो: मिन्ग्युर रिन्पोचे — दैनिक जीवन के लिए ध्यान-साधना
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प्रश्न तथा उनके उत्तर

आन्तरिक तथा बाह्य घटनाचक्र के प्रति सजग बने रहना

क्या समस्याओं से बचाव के लिए हमेशा एकाग्रचित्त रहना आवश्यक है?

एक दृष्टि से, हाँ। लेकिन बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि हम किसी व्यक्ति पर चीखने-चिल्लाने के लिए या उसे चोट पहुँचाने के लिए पूरी तरह से एकाग्रचित्त हों, तो यह तो तस्वीर का केवल एक ही पहलू हुआ। हमें इस रूप में भी जाग्रत होना चाहिए कि हम अपने भीतर घटित होने वाले विचारों और मनोभावों आदि के प्रति भी सचेत हों ─ और इस बात के प्रति भी सचेत हों कि हमारे आसपास के लोगों के जीवन में क्या घटित हो रहा है। जब कोई व्यक्ति घर लौटता है ─ कोई परिजन, या कोई प्रियजन या कोई भी ─ तो आप देख-समझ सकें कि हो सकता है वह व्यक्ति बहुत थका-मांदा हो। आपको इस बात के प्रति बहुत सजग रहना चाहिए। जब कोई थका-हारा घर लौटा है तो यह समय उसके साथ किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई बड़ी चर्चा शुरू करने का नहीं है ─ वह व्यक्ति थका हुआ है। तो इस प्रकार आप अपने आस पास के घटनाचक्र के प्रति सजग, एकाग्र और केन्द्रित बने रहना चाहते हैं। हम केवल इस बात पर ही ध्यान नहीं देते कि मैं किस हाल में हूँ बल्कि इस बात के प्रति भी सचेत रहते हैं कि दूसरों की क्या स्थिति है।

इस प्रकार हम ऐसे अतिवाद से बचते हैं कि हम केवल अपने प्रति ही जागरूक हों और दूसरों के प्रति जागरूक न हों; या एक अन्य प्रकार का अतिवाद कि हम दूसरों का ही ध्यान रखें और अपने ऊपर ध्यान न दें। इस प्रकार के अतिवाद से भी हमें बचना चाहिए। बहुत से लोग दूसरों से “ना” न कह पाने के संलक्षण से पीड़ित रहते हैं और इसलिए वे हर समय दूसरों के लिए, अपने किसी परिजन के लिए, या प्रियजन के लिए या और किसी के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं, और आखिरकार वे इतने थक जाते हैं कि वे टूट जाते हैं और नाराज़ रहने लगते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम इस बात पर भी ध्यान दें कि हमें कैसा महसूस हो रहा है और हम अपनी आवश्यकताओं का भी खयाल रखें। जब हमें आराम की ज़रूरत हो, तो हम आराम करें। जब हमें यह कहने की आवश्यकता महसूस हो कि, “नही, माफ़ कीजिए, मैं यह काम नहीं कर सकता। यह बहुत ज़्यादा है, मैं नहीं कर सकूँगा,” तो हम “ना” कह दें। आदर्श स्थिति में जब हम किसी को “ना” कहते हैं तो हमें उस व्यक्ति को किसी प्रकार का विकल्प भी देना चाहिए। आप इस प्रकार सुझाव दे सकते हैं: “लेकिन हो सकता है कि अमुक व्यक्ति आपकी सहायता कर सके।”

संक्षिप्तार्थ यह है कि अपने भीतर और बाहर के घटनाचक्र के प्रति सजग रहिए, और फिर सम्यक ज्ञान, और प्रेम और करुणा के सिद्धांत को लागू कीजिए।

क्रोध पर नियंत्रण

आपने क्रोध या अन्य प्रकार के विनाशकारी व्यवहार को नियंत्रित करने के उपाय के रूप में फर्श को बुहारने के उपाय की चर्चा की, लेकिन आपने यह भी कहा कि बौद्ध धर्म में इसके लिए कहीं अधिक गहरे प्रभाव वाली विधियाँ भी हैं। क्या आप कम से कम थोड़ा संकेत देंगे कि इन विधियों को कहाँ तलाश किया जाए?

देखिए, थोड़ा और गहराई में जाएं तो जब हमें क्रोध आ रहा हो तो उसे नियंत्रित करने की एक विधि धैर्यशीलता का भाव विकसित करना है। अब धैर्य का भाव कैसे विकसित किया जाए? इसके बहुत से तरीके हैं, उदाहरण के लिए एक विधि है जिसे “लक्ष्य-समान धैर्य” कहा जाता है: “यदि मैंने कोई लक्ष्य ही निर्धारित नहीं किया तो कोई उसे बेध भी नहीं पाएगा।” उदाहरण के लिए, मैं आपको कहता हूँ कि आप मेरे लिए कोई काम कर दें, और आप उसे करने में गलती कर देते हैं। तो यह किसका दोष हुआ? दरअसल यह मेरी ही गलती है कि मैंने आलस्यवश आपको वह काम सौंपा जो मुझे स्वयं करना चाहिए था। ऐसी स्थिति में मुझे क्या उम्मीद करनी चाहिए? जब आप किसी को कोई काम करने के लिए कहते हैं, तो आपको क्या उम्मीद कर सकते हैं? मान लीजिए कि आप दो साल के किसी बच्चे को गर्म चाय का प्याला उठा कर लाने के लिए कहते हैं और बच्चा चाय गिरा देता है। ज़ाहिर है, वह तो चाय गिराएगा ही। वही बात है ─ जब हम अपने लिए किसी को कोई काम करने के लिए कहते हैं तो हम क्या उम्मीद कर सकते हैं?

तो, मुझे यह बात समझ में आती है कि समस्या दरअसल मेरे आलस्य के कारण उत्पन्न हुई। ऐसी स्थिति में हम दूसरे व्यक्ति पर क्रोधित नहीं होते हैं। और मुझे इस बात का बोध होता है कि जब मैं अपने लिए किसी को कोई काम करने के लिए कहता हूँ तो उसका कारण यह है कि मैं आलस्यवश उस काम को नहीं करना चाहता ─ या तो मैं बहुत आलसी हूँ, या मेरे पास उस काम को करने के लिए समय नहीं है, जो भी कारण हो। लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि जब मैं किसी और को उस काम को करने के लिए कह रहा हूँ, तो मुझे यह अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए कि वह व्यक्ति उस काम को एकदम ठीक ढंग से कर देगा ─ या वैसा कर देगा जैसा मैं स्वयं करता, और सम्भव है कि वह भी अन्ततः एकदम सही न हो पाता। आखिर मुझसे भी गलतियाँ होती हैं। और यदि उस काम को मैं स्वयं करता हूँ और मुझसे गलती हो जाती है, तो अपने आप से नाराज़ होने का कोई कारण नहीं है। “मैं अमोघ नहीं हूँ ─ कोई भी सर्वगुण सम्पन्न नहीं है ─ इसलिए ज़ाहिर है कि मैं गलती कर सकता हूँ।” और इस प्रकार आप वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं। “मैं एक मनुष्य हूँ; गलती करना मनुष्यों का स्वभाव है; इसलिए मुझसे भी गलती हो गई।” और फिर यदि मैं अपनी गलती को सुधार सकता हूँ, तो मैं उसे सुधार लेता हूँ। मैं अपने आप पर तो क्रोधित नहीं होता। अपने आप पर क्रोधित होकर तो कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। बस, मैं अपनी गलती को सुधार लूँ, यदि मैं ऐसा कर सकता हूँ तो। यदि मैं अपनी गलती नहीं सुधार सकता, तब तो कुछ किया ही नहीं जा सकता ─ उस बात को वहीं खत्म किया जाए और प्रयास किया जाए कि भविष्य में वह गलती फिर न हो।

क्रोध को नियंत्रित करने का इससे भी गहन विधि यह है कि हम अपनी वास्तविकता को समझें। अभी मैं एक बहुत ही सामान्य से स्तर पर इस बात को कह रहा हूँ, लेकिन एक सामान्य स्तर पर भी यह बहुत लाभकारी है। “मैं इस सृष्टि का केन्द्र बिन्दु नहीं हूँ। फिर ऐसा क्यों हो कि सब कुछ हमेशा मेरी इच्छा के मुताबिक ही हो? क्यों? मुझमें ऐसी क्या ख़ास बात है कि सब कुछ मेरी इच्छानुसार हो और किसी और की इच्छा के अनुसार न हो?” इस प्रकार विचार करके आप ब्रह्माण्ड के इस सबसे महत्वपूर्ण तत्व “मैं” के मूर्त रूप को विखंडित करना शुरू कर देते हैं। मूर्त स्वरूप “मैं!” और फिर आप इस विखंडन की प्रक्रिया को आगे, और आगे ले जा सकते हैं। जब तक आपके मन में इस “मैं” की एक मूर्त छवि बनी रहती है और जब तक आप समझते हैं कि सब कुछ मेरे मन के मुताबिक ही होते रहना चाहिए, तो ज़ाहिर है कि जब आपकी मर्ज़ी के मुताबिक काम नहीं होगा तो आपको क्रोध आएगा ही, है न?

बौद्ध धर्म में इस बात की बहुत मीमांसा की गई है कि हमारे अस्तित्व का आधार क्या है और अन्य सभी के अस्तित्व का आधार क्या है। हमारा अस्तित्व तो है, लेकिन हमारा अस्तित्व उस काल्पनिक रूप में नहीं है जैसा हम समझते हैं, उदाहरण के लिए कोई “मैं” है जो मेरे मस्तिष्क में बैठा बात करता है और मुझसे निसृत होने वाले शब्दों का कर्ता है। ऐसा आभास होता है कि जैसे भीतर कोई छोटा सा “मैं” विराजता है जो बात करता है, शिकायत करता है: “अब मैं क्या करूँ? अरे, मैं वैसा करूँगा,” और फिर आप अपने शरीर को थोड़ा हिलाते-डुलाते हैं, जैसे वह कोई मशीन हो। लेकिन यह तो भ्रम है। आपको अपने भीतर कोई छोटा सा “मैं” खोजने पर नहीं मिलेगा, क्या आप खोज सकते हैं? लेकिन फिर भी मेरा अस्तित्व तो है ─ मैं बात करता हूँ; अन्य क्रियाएं करता हूँ। इसलिए हमें इन काल्पनिक मान्यताओं को खत्म करना होगा, क्योंकि इनसे ऐसा आभास होता है कि वे वास्तविक हैं। ऐसा आभास होता है। यह स्वर लगातार निसृत होता रहता है, इसका अर्थ यह हुआ कि भीतर कोई होना चाहिए जो बात कर रहा है।

इस प्रकार बौद्ध धर्म में ऐसा बहुत कुछ है जो उस पूरे विषय के अध्ययन के लिए उपयोगी हो सकता है जिसे हम “मनोविज्ञान” कहते हैं।

शारीरिक क्षमताओं का कुशल प्रयोग

मेरे दो प्रश्न हैं। पहला प्रश्न है: शारीरिक क्षमताओं के कुशल प्रयोग के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताएं। आपने कहा कि हमें अपने शरीर को तनावमुक्त रखना चाहिए, लेकिन शायद हमें इसके अलावा कुछ और भी करने की आवश्यकता है। और मेरा दूसरा प्रश्न है: इन सभी कल्पनाओं का स्रोत क्या है? उदाहरण के लिए आपने हमारे मस्तिष्क में निवास करने वाले वक्ता का उल्लेख किया ─ उसके प्रकट होने का क्या कारण है?

शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से हम बहुत से उपायों का प्रयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए तिब्बती परम्परा के बौद्ध चिकित्सा शास्त्र को ही लें, जिसमें शरीर की ऊर्जाओं को संतुलित करने पर बहुत बल दिया जाता है। हमारे आहार और व्यवहार का हमारी ऊर्जाओं और हमारे सामान्य स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। व्यवहार इस दृष्टि से कि आप सर्दी में पर्याप्त गर्म कपड़े पहने बिना ही बाहर निकल जाएं तो आप बीमार हो जाएंगे। हम इस दृष्टि से व्यवहार की बात कर रहे हैं। या अत्यधिक श्रम करना ─ इस प्रकार के व्यवहार से भी आप बीमार हो जाएंगे।

हम अपने शरीर की दशा के प्रति भी सचेतन बने रहने का प्रयत्न करते हैं। आप जितने अधिक शांतचित्त होते हैं, आप अपने चित्त की अवस्था और शरीर में स्थित ऊर्जा के प्रति भी उतने ही अधिक सजग हो जाते हैं। यदि आप अनुभव करते हैं कि आपकी ऊर्जा बहुत अशांत और आंदोलित है, उदाहरण के लिए यदि आप की नब्ज़ बहुत तेज़ी से चलती हो, आदि, तो आप इसका पता लगा सकते हैं ─ ऐसी स्थिति में आप बहुत मामूली सी चीज़ें करके भी इसे ठीक कर सकते हैं, यहाँ तक कि सिर्फ अपने दैनिक आहार में संशोधन करके भी आप इसे ठीक कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हम कॉफ़ी और कड़क चाय से परहेज़ कर सकते हैं, और ऊर्जाओं का शमन करने वाले गरिष्ठ आहार जैसे वसायुक्त आहार ─ पनीर इत्यादि ले सकते हैं। और गर्माहट बनाए रखें; ऐसे स्थान पर न रहें जहाँ तेज़ हवा चलती हो। और ऐसी शक्तिशाली मशीनों के आस-पास न रहें जो घर्र-घर्र करके चलती रहती हैं। इससे ऊर्जा का संतुलन और खराब होगा। किसी शांत स्थान में रहें। तो अभ्यास का एक तो यह स्तर हुआ।

तिब्बती परम्परा में शारीरिक व्यायाम या उस प्रकार के शारीरिक श्रम पर बल नहीं दिया जाता है जैसा चीनी और जापानी बौद्ध परम्पराओं में युद्ध कलाओं के माध्यम से किया जाता है। लेकिन विभिन्न प्रकार की युद्ध कलाएं ─ जैसे ताइजी, क्विगाँग आदि ─ निश्चित तौर पर बहुत उपयोगी हो सकती हैं। इन विधियों से भी आप अपने शरीर की लय के प्रति सचेतनता से एकाग्रता विकसित कर सकते हैं। तिब्बती लोग जिस प्रकार के शारीरिक व्यायाम करते हैं, वे कहीं अधिक सूक्ष्म प्रकृति के होते हैं जिनका सम्बंध हमारे ऊर्जा तंत्र से तो होता है लेकिन युद्ध कलाओं की भांति नहीं। यह थोड़ा अलग तरीका होता है जो कुछ कुछ योग से अधिक मिलता है। तो इस प्रकार आप शरीर की क्षमताओं का कुशल उपयोग कर सकते हैं।

मस्तिष्क से उठने वाले स्वरों का स्रोत

जहाँ तक हमारे मस्तिष्क से उठने वाले स्वर के स्रोत का प्रश्न है, इसका सम्बंध हमारे चित्त की प्रकृति से है, और यहाँ बात थोड़ी पेचीदा हो जाती है। बौद्ध धर्म में जब हम चित्त की चर्चा करते हैं तो हमारा आशय किसी वस्तु से नहीं होता है। हम मानसिक कार्यकलाप की बात कर रहे होते हैं, और मानसिक कार्यकलाप का सम्बंध सोचने, देखने, अनुभूतियों से होता है। इसके क्षेत्र का विस्तार अपार है। इस क्रिया में होता यह है कि एक प्रकार के मानसिक होलोग्राम यानी त्रिविमीय छवि की उत्पत्ति होती है। उदाहरण के लिए जब हम किसी चीज़ को देखते हैं तो उस चीज़ से परावर्तित होने वाला प्रकाश हमारी आँख के दृष्टिपटल पर आ कर टकराता है, जिससे तंत्रिका कोशिकाओं में वैद्युत आवेग और रासायनिक क्रियाएं शुरू हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप एक प्रकार का होलोग्राम उत्पन्न होता है जो दर्शाता है कि कोई चीज़ कैसी दिखाई देती है। लेकिन वास्तव में वह एक मानसिक होलोग्राम होता है जिसकी उत्पत्ति बहुत सारे रासायनिक और वैद्युत आवेगों के कारण होती है।

लेकिन होलोग्राम सिर्फ दृश्य से सम्बंधित ही नहीं होते हैं। ये मानसिक होलोग्राम ध्वनि, जैसे शब्दों के रूप में भी हो सकते हैं। आपको एक पूरा वाक्य एक बार में ही सुनाई नहीं देता है ─ बल्कि आप उसे अलग अलग हिस्सों के क्रम में सुनते हैं, लेकिन फिर भी पूरे वाक्य का मानसिक होलोग्राम तैयार हो जाता है और आप उसका अर्थ भी ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार मनोभावों के रूप में, विचारों के रूप में और शाब्दिक अभिव्यक्ति ─ इस स्वर के रूप में भी मानसिक होलोग्राम बनते हैं। ये चीज़ें बस स्वरूप धारण कर लेती हैं। इनका सम्बंध किसी प्रकार के परोक्ष ज्ञान से होता है। इस प्रकार देखने, या सोचने या अनुभव करने का यही अर्थ है। यही वस्तुस्थिति है। और यह सारा मानसिक क्रियाकलाप किसी ऐसे “मैं” के न होते हुए भी चल रहा है जो इस सबसे पृथक हो और जो इस सब को देख रहा हो, या नियंत्रित और सम्पादित कर रहा हो। यह सब तो बस होता है। तो उस “मैं” का विचार इस मानसिक होलोग्राम के माध्यम से अभिव्यक्त विचारों का हिस्सा हैं ─ वह स्वर “मैं” का स्वर है। कौन सोच रहा है? मैं सोच रहा हूँ। जो सोच रहा है वह आप नहीं हैं ─ मैं सोच रहा हूँ। लेकिन यह सब इन होलोग्रामों की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का एक अंश मात्र है।

आपके मस्तिष्क के भीतर के इस स्वर का स्रोत क्या है? यह तो मानसिक कार्यकलाप का एक लक्षण मात्र है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रकार का मानसिक कार्यकलाप इसी प्रकार से चलता हो। वह स्वर हमेशा नहीं चलता रहता है, और मुझे नहीं लगता कि कोई केंचुआ सस्वर विचार करता होगा। लेकिन केंचुए का भी निश्चित तौर पर एक मस्तिष्क होता है, चित्त होता है, वह भी चीज़ें देखता है, क्रियाएं करता है।

दरअसल जब हम इसके बारे में विचार करने लगते हैं तो यह बात बहुत दिलचस्प लगने लगती है। किसी आवाज़ की ध्वनि का होलोग्राम एक प्रकार की सूचना होता है, है न? यह एक प्रकार संकल्पना है जो शब्दों की मानसिक ध्वनि के रूप में विचार को अभिव्यक्त करती है। अब दिलचस्प प्रश्न यह है कि कोई व्यक्ति जो जन्म से ही मूक और बधिर हो जिसे ध्वनि की अवधारणा का कोई ज्ञान न हो ─ तो क्या ऐसे व्यक्ति के मस्तिष्क में भी किसी प्रकार का स्वर होगा, या ऐसा व्यक्ति संकेत भाषा के माध्यम से सोचता है? यह बड़ा दिलचस्प प्रश्न हैं। लेकिन मैं कभी इसका उत्तर नहीं तलाश कर सका हूँ।

इसलिए, चाहे कोई स्वर हो, चाहे संकेत भाषा हो, जो भी हो ─ या केंचुए की सोचने की जो भी प्रक्रिया हो ─ यह एक भ्रम है कि इस सबके पीछे एक अलग से “मैं” है जो नियंता-पीठ पर बैठा बात करता है, और आँखों के माध्यम से सूचना पर्दे पर दिखाई दे रही है, और यह संचालक माइक्रोफोन पर निर्देश देता है और फिर जब वह बटन दबाता है तो उसके निर्देश पर हाथ और पैर हिलते-डुलते हैं। यह सब पूरी तरह से एक भ्रम है। लेकिन यह उसी प्रकार का “मैं” है जो नियंता पीठ पर बैठा-बैठा सोचता है, “अरे, लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” और “अब मैं क्या करूँ?” इसी को लेकर तो हम चिन्तित रहते हैं, यह “मैं” जो नियंता-पीठ पर बैठा है।

जब हम यह समझ लेते हैं कि यह “मैं” एक भ्रम है, तो हमारे मन का भय जाता रहता है। हम बात करते हैं, हम क्रियाकलाप करते हैं। निःसंदेह यह मैं हूँ। मैं बात कर रहा हूँ, क्रियाकलाप कर रहा हूँ। और यदि लोगों को यह पसन्द नहीं है, तो मेरी बला से। तो क्या हुआ? ऐसा तो नहीं है कि बुद्ध से सभी लोग खुश थे, फिर मैं अपने लिए क्या उम्मीद करूँ? हम चैतन्य, प्रेम, करुणा के भावों का सहारा लेते हुए अपना कर्म करते चलते हैं। और, बस। और इस बात की चिन्ता मत कीजिए: “लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” यह बात उतनी आसान नहीं है जितनी दिखाई देती है।

जब दूसरे क्रोधित हों तब स्वयं को नियंत्रित करना

जब कोई दूसरा व्यक्ति हमारे ऊपर क्रोधित हो, उस समय हम स्वयं को कैसे नियंत्रित रख सकते हैं?

दरअसल ऐसे लोग किसी छोटे बच्चे के समान होते हैं। जब हम किसी दो साल के बच्चे से कहते हैं, “तुम्हें अब सो जाना चाहिए” और बदले में वह बच्चा कहता है, “मुझे तुमसे नफरत है। तुम बहुत बुरे हो” और फिर बच्चा बड़ा बखेड़ा खड़ा कर देता है तो क्या हम क्रोधित होते हैं? हाँ, कुछ लोग नाराज़ हो जाते हैं; लेकिन इस स्थिति में आपका वास्ता दो साल के बच्चे से है, उससे आप क्या उम्मीद रखते हैं? आप बच्चे को शांत करने का प्रयत्न करते हैं। धैर्य से काम लें, जैसे आप किसी दो साल के बच्चे के साथ पेश आएंगे। ज़रा सोचिए: ऐसी स्थिति में किसी दो साल के बच्चे के साथ आप कैसा व्यवहार करते हैं? सामान्यतया, जब कोई दो साल का छोटा बच्चा इस तरह का बुरा व्यवहार कर रहा हो, और आप उसे गोद में उठाकर उसे दुलरा लें, तो वह शांत हो जाता है, है न? डांटने डपटने से तो बच्चा और भी ज़्यादा रोने लगता है। लोग भी कुछ वैसे ही होते हैं ─ बड़ी उम्र के बच्चे।

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