पुनर्जन्म क्या है?

दूसरे भारतीय धर्मों की ही तरह बौद्ध धर्म में भी पुनर्जन्म या अवतार की बात कही गई है। व्यक्ति का मानसिक सातत्य उसकी प्रवृत्तियों, गुणों आदि सहित उसके पिछले जन्मों से आता है और भविष्य के जन्मों में निरन्तर जारी रहता है। व्यक्ति के कृत्यों और उसके द्वारा विकसित की गई प्रवृत्तियों के आधार पर उसका पुनर्जन्म अनेक प्रकार के जीवों के रूप में हो सकता है जो उसके वर्तमान जन्म से बेहतर या बदतर हो सकते हैं : उसका पुनर्जन्म मनुष्य, पशु, किसी तुच्छ कीट, और यहाँ तक कि प्रेत के रूप में या दूसरी अदृश्य अवस्थाओं के रूप में हो सकता है। सभी जीव मोह, क्रोध और बौद्धिक जड़ता जैसे अशांतकारी दृष्टिकोणों और इन दृष्टिकोणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले अपने बाध्यताकारी आचरण के प्रभाव से पुनर्जन्म की प्रक्रिया से होकर गुज़रते हैं जिस पर उनका अपना कोई नियंत्रण नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति व्यवहारगत आदतों के कारण चित्त में उत्पन्न होने वाले नकारात्मक मनोवेगों के वशीभूत होकर विनाशकारी आचरण करता है तो इसके परिणामस्वरूप उसे दुख भोगना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर यदि वह सकारात्मक कृत्य करता है तो उसे सुख की प्राप्ति होगी। इस प्रकार बाद के जन्मों में प्रत्येक व्यक्ति को मिलने वाला सुख या दुख कोई पुरस्कार या दंड नहीं है, बल्कि व्यवहारगत कारण और प्रभाव के नियमानुसार उस व्यक्ति के पिछले कर्मों का फल होता है।

हम पुनर्जन्म को किस प्रकार समझ सकते हैं?

हम प्रामाणिक तौर पर कैसे मालूम करते हैं कि कोई बात सत्य है? बौद्ध शिक्षाओं के अनुसार चीज़ों की प्रामाणिकता को दो तरीकों से मालूम किया जा सकता है : प्रत्यक्ष बोध के द्वारा या निष्कर्ष के माध्यम से। किसी प्रयोगशाला में प्रयोग करके हम किसी वस्तु के अस्तित्व को प्रत्यक्ष बोध की सहायता से प्रमाणित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से देखकर हम केवल अपनी इंद्रियों के माध्यम से यह जान लेते हैं कि किसी तालाब के पानी की एक बूँद में अनगिनत सूक्ष्मजीव होते हैं।

किन्तु कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिन्हें प्रत्यक्ष बोध के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है। उन्हें समझने के लिए हमें तर्क, विवेक बुद्धि और निष्कर्ष का सहारा लेने की आवश्यकता होती है, जैसे चुम्बकत्व के अस्तित्व का निष्कर्ष किसी चुम्बक और लोहे की सुई के बीच के व्यवहार के आधार पर निकाला जा सकता है। पुनर्जन्म को प्रत्यक्ष इंद्रियबोध के माध्यम से सिद्ध करना बहुत कठिन है। लेकिन ऐसे बहुत से लोगों के उदाहरण मिलते हैं जिन्हें अपने पिछले जन्मों की बातें याद हैं और वे या तो पिछले जन्म में अपने निजी उपयोग की वस्तुओं या पुराने परिचितों को पहचान सकते हैं। हम इस आधार पर पुनर्जन्म का निष्कर्ष निकाल सकते हैं, लेकिन हो सकता है कि कुछ लोग इस निष्कर्ष को संदेह की दृष्टि से देखते हों या इसे कोई चाल समझते हों।

इसलिए पिछले जन्मों के उन कहानी-किस्सों को अलग रखते हुए हम तर्क की सहायता से पुनर्जन्म को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं। परम पावन दलाई लामा इस बात को कह चुके हैं कि यदि कुछ बातें या मान्यताएं यथार्थ से मेल नहीं खाती हैं तो वे उन्हें बौद्ध धर्म से हटाए जाने के लिए तैयार हैं। यह बात बौद्ध धर्म के मामले में भी लागू होती है। दरअसल उन्होंने यह वक्तव्य मूलतः इसी संदर्भ में दिया था। यदि वैज्ञानिक यह सिद्ध कर दें कि पुनर्जन्म नहीं होता है, तो फिर हमें उसे सत्य मानना बंद कर देना चाहिए। लेकिन, यदि वैज्ञानिक उसे असत्य सिद्ध न कर सकें, तो फिर चूँकि वैज्ञानिक तर्क और वैज्ञानिक तौर-तरीके अपनाते हैं, इसलिए उन्हें यह खोज करनी चाहिए कि क्या वास्तव में पुनर्जन्म होता है। पुनर्जन्म का अस्तित्व न होना सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिकों को उसका अस्तित्व न होने के सत्य को खोजना होगा। सिर्फ यह कह देने भर से पुनर्जन्म का अस्तित्व न होना सिद्ध नहीं हो जाता है कि “पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि उसे हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते।” चुम्बकत्व और गुरुत्वाकर्षण जैसी ऐसी बहुत सी चीज़ें अस्तित्वमान हैं जिन्हें हम अपनी आँखों से देख नहीं सकते।

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पुनर्जन्म के होने या न होने के सत्य की खोज करने के लिए तर्क-वितर्क के तौर-तरीके

यदि वैज्ञानिक यह सिद्ध नहीं कर पाते हैं कि पुनर्जन्म नहीं होता है, तो फिर उन्हें इस बात की खोज करनी चाहिए कि पुनर्जन्म होता है। इसे करने का वैज्ञानिक तरीका यह है कि कुछ तथ्यों के आधार पर एक सिद्धांत को मान लिया जाए और फिर यह जाँच की जाए कि उसे प्रमाणित किया जा सकता है या नहीं। इसीलिए हम तथ्यों या आँकड़ों की तलाश करते हैं। उदाहरण के लिए हम पाते हैं कि नवजात शिशु कोरे कैसेट्स की तरह पैदा नहीं होते। उनमें कुछ आदतें और व्यक्तित्व सम्बंधी विशेषताएं होती हैं जिन्हें  बहुत कम उम्र में भी देखा जा सकता है। ये गुण उनमें कहाँ से आते हैं?

इस बात को कहने का कोई अर्थ नहीं है कि शिशुओं में ये गुण उनके माता-पिता के भौतिक तत्वों, यानी शुक्राणु तथा डिम्ब के पिछले सातत्य से आते हैं। आपस में मेल करने वाले प्रत्येक शुक्राणु और डिम्ब गर्भाशय में आरोपित होकर भ्रूण के रूप में विकसित हों यह आवश्यक नहीं होता है। उन दोनों के शिशु के रूप में विकसित होने या न होने के बीच का अंतर किस कारण से होता है? बच्चे की विभिन्न प्रकार की आदतें और प्रवृत्तियाँ दरअसल किसके कारण विकसित होती हैं? हम कह सकते हैं कि यह डी.एन.ए. और जीन प्रभाव के कारण होता है। यह तो भौतिक पक्ष हुआ। इस बात से किसी को इन्कार नहीं है कि यह किसी शिशु के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया का भौतिक पक्ष है। किन्तु इसके आनुभविक पक्ष के बारे में क्या कहा जाए? चित्त के बारे में हम क्या स्पष्टीकरण दे सकते हैं?
अंग्रेज़ी भाषा के माइंड शब्द का अर्थ ठीक वह नहीं है जो संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में प्रयोग किए जाने वाले उन शब्दों का होता है जिनका अनुवाद माइंड शब्द की सहायता से करने की अपेक्षा की जाती है। मूल संस्कृत और तिब्बती भाषाओं में “चित्त” शब्द से आशय मानसिक कार्यकलाप या मानसिक घटनाओं से होता है न कि किसी ऐसी सत्ता से जो इस कार्यकलाप को संचालित कर रही हो। कार्यकलाप या घटना से आशय विचारों, दृश्यों, ध्वनियों, मनोभावों, भावनाओं आदि जैसी कुछ चीजों की संज्ञानात्मक उत्पत्ति और उन्हें देखने, सुनने, समझने या न समझने जैसे संज्ञानात्मक जुड़ाव से होता है।

किसी व्यक्ति के भीतर संज्ञानात्मक वस्तुओं की उत्पत्ति और उनके साथ जुड़ाव के इस मानसिक कार्यकलाप की उत्पत्ति कहाँ से होती है? यहाँ हम यह बात नहीं कर रहे हैं कि शरीर कहाँ से आता है, क्योंकि ज़ाहिर है कि वह तो माता-पिता से प्राप्त होता है। हम यहाँ बुद्धि आदि के बारे में बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि इसके विषय में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि इसका एक आनुवंशिक आधार होता है। लेकिन यह कहना बात को बहुत अधिक खींचने वाली बात हो जाएगी कि यदि कोई व्यक्ति चॉकलेट आइसक्रीम पसंद करता है तो ऐसा उसकी जीन के प्रभाव के कारण होता है।

हम कह सकते हैं कि हमारी कुछ रुचियाँ हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि या हमारी आर्थिक और सामाजिक स्थितियों से प्रभावित हो सकती हैं। बेशक इन चीजों का प्रभाव पड़ता है, लेकिन इस आधार पर हमारे प्रत्येक कार्यकलाप का स्पष्टीकरण देना कठिन होगा। उदाहरण के तौर पर, बचपन में मेरे मन में योग के प्रति रुचि क्यों जाग्रत हुई? मेरे परिवार या मेरे आस-पास के समाज में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो योग में रुचि रखता हो। जहाँ मैं रहता था वहाँ इस विषय पर कुछ किताबें उपलब्ध थीं, इसलिए आप ऐसा कह सकते हैं कि समाज का कुछ प्रभाव था, लेकिन फिर मेरी रुचि हठयोग के विषय की उस किताब में ही क्यों हुई? मैंने उसी किताब को क्यों चुना? यह एक अलग प्रश्न है। क्या ऐसा है कि सब कुछ बस संयोग से ही होता है और इसलिए भाग्य महत्वपूर्ण हो जाता है, या क्या ऐसा है कि हर बात का स्पष्टीकरण दिया जा सके?

इन सब बातों को दरकिनार करके अब हम मुख्य प्रश्न पर लौटते हैं: संज्ञानात्मक वस्तुओं और उन वस्तुओं से संज्ञानात्मक जुड़ाव के इस कार्यकलाप की उत्पत्ति कहाँ से होती है? बोध की क्षमता कहाँ से उत्पन्न होती है? जीवन के स्फुलिंग का मूल क्या है? शुक्राणु और डिम्ब के इस संयोजन में प्राण कौन फूँकता है? उसे मनुष्य का स्वरूप कौन देता है? ऐसा क्या है जिसके कारण विचारों और दृश्यों की उत्पत्ति और उनके साथ संज्ञानात्मक जुड़ाव होता है और जो मस्तिष्क के रासायनिक और वैद्युत कार्यकलापों का आनुभविक पक्ष होता है?

यह कहना कठिन है कि शिशु की मानसिक गतिविधियाँ उसे अपने माता-पिता से मिलती हैं क्योंकि यदि ऐसा होता है तो फिर वे माता-पिता से शिशु तक कैसे पहुँचती हैं? इसकी कोई तो प्रक्रिया या व्यवस्था होगी। जीवन की वह चिंगारी, जिसे सचेतनता के रूप में देखा जाता है, माता-पिता से क्या उसी तरह प्राप्त होती है जैसे शुक्राणु और डिम्ब होते हैं? क्या वह रति-निष्पत्ति से आती है? डिम्बोत्सर्जन से आती है? वह शुक्राणु में छिपी होती है या डिम्ब में? यदि हम इस बात का कोई तर्कसंगत और वैज्ञानिक संकेत नहीं दे सकते कि वह चिंगारी कब माता-पिता से शिशु तक पहुँचती है, तो फिर हमें इस प्रश्न का कोई दूसरा समाधान खोजना होगा।

केवल तर्क की दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि सभी प्रकार की क्रियात्मक परिघटनाएं अपने ही सातत्यों, उसी श्रेणी की परिघटनाओं के पिछले क्षणों से उद्भूत होती हैं। उदाहरण के तौर पर कोई भी भौतिक गोचर वस्तु, चाहे वह पदार्थ हो या ऊर्जा हो, उसी पदार्थ या ऊर्जा के किसी पिछले क्षण से उत्पन्न होती है। यह एक सातत्य है।

क्रोध का उदाहरण लें। जब हमें क्रोध आता है तो हम शारीरिक ऊर्जा को अनुभव करते हें, यह तो एक बात हुई। लेकिन, अब हम क्रोध को अनुभव करने की मानसिक क्रिया की बात करें – उस मनोभाव की उत्पत्ति को अनुभव करने और चेतन या अचेतन मन से उसके प्रति सजग होने की बात करें। किसी व्यक्ति को क्रोध की अनुभूति होने के पीछे इसी जन्म के पिछले सातत्य के क्षण होते हैं, लेकिन उससे पूर्व यह अनुभूति कहाँ से आई? या तो यह अनुभूति व्यक्ति के माता-पिता से आई, और यह प्रक्रिया कैसे घटित होती है इसे समझाने की कोई व्यवस्था नहीं दिखाई देती, या फिर किसी सृष्टिकर्ता ईश्वर से प्राप्त होती है। लेकिन कुछ लोगों को तर्क की दृष्टि से असंगतियों के कारण इस स्पष्टीकरण को स्वीकार करने में कठिनाई होती है कि कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर सृजन कैसे करता है। इस प्रकार की असंगतियों की समस्या से बचने का विकल्प यही है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में क्रोध का पहला क्षण उसके जीवन के सातत्य के पिछले क्षण से आता है। पुनर्जन्म का सिद्धांत इसी बात का स्पष्टीकरण देता है।

चलचित्र का सादृश्य

हम पुनर्जन्म के विषय को किसी फिल्म-कथा से तुलना करके समझने का प्रयास कर सकते हैं। जिस प्रकार किसी फिल्म की कथा फिल्म के बहुत सारे फ्रेमों के नैरन्तर्य का परिणाम होती है, उसी प्रकार हमारा मानसिक सातत्य या चेतनता का क्षण-प्रति-क्षण सातत्य हमारे जीवनकाल में और फिर एक जीवन से दूसरे जीवन में परिघटनाओं के प्रति सचेतनता के निरन्तर परिवर्तनकारी क्षणों का परिणाम होता है। “मैं” या “मेरा चित्त” जैसा कोई मूर्त, प्रकट किए जाने योग्य तत्व नहीं है जिसका पुनर्जन्म होता हो। पुनर्जन्म कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जहाँ किसी वाहकपट्टी पर रखी कोई छोटी सी प्रतिमा एक जन्म से दूसरे जन्म में अन्तरित हो जाती हो। बल्कि यह तो किसी फिल्म की कथा के समान है जो सतत रूप से परिवर्तनशील है। इसका हर फ्रेम अलग होता है, लेकिन उसमें एक नैरन्तर्य होता है। हर फ्रेम अगले फ्रेम से जुड़ा होता है। इसी प्रकार परिघटनाओं के प्रति सचेतनता के क्षणों का एक निरन्तर परिवर्तनकारी सातत्य होता है, भले ही उनमें से कुछ क्षण अचेतन ही क्यों न हों। इसके अलावा, जिस प्रकार हालाँकि सभी फिल्म कथाओं को फिल्म कथा ही कहा जाता है, लेकिन सभी फिल्म कथाएं एक समान नहीं होती हैं, उसी प्रकार सभी मानसिक सातत्य या “चित्त” कोई एक चित्त नहीं हैं। एक-दूसरे से पृथक परिघटनाओं के प्रति सचेतनता के अनगिनत प्रवाह होते हैं और इनमें से प्रत्येक प्रवाह को उसके अपने परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से एक “मैं” की संज्ञा दी जा सकती है।

पुनर्जन्म के प्रश्न के सम्बंध में हम इन तर्कों की जाँच से शुरुआत करते हैं। यदि कोई सिद्धान्त तर्क की दृष्टि से अर्थपूर्ण दिखाई देता है, तो फिर हम अधिक गम्भीरता से इस विषय पर विचार कर सकते हैं कि ऐसे भी लोग हैं जिन्हें अपने पूर्व जन्मों की घटनाएं याद हैं। इस प्रकार हम तर्कसंगत दृष्टि से पुनर्जन्म की वास्तविकता की जाँच करते हैं।

बौद्ध धर्म के अनुसार पुनर्जन्म की प्रक्रिया की तुलना किसी वाहकपट्टी पर रखी किसी मूर्त प्रतिमा या व्यक्ति के एक जन्म से दूसरे जन्म में पहुँचने की प्रक्रिया से नहीं की जा सकती है। उस सादृश्य में वाहकपट्टी समय का प्रतीक है और प्रतिमा किसी मूर्त वस्तु, किसी निश्चित व्यक्तित्व या “मैं” से सम्बोधित किए जाने वाली आत्मा का प्रतीक है जो समय से होकर गुज़र रही है: “अभी मैं युवा हूँ, अब मैं वृद्ध हो गया हूँ; अभी मैं इस जन्म में हूँ, अब मैं उस जन्म में हूँ।” बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म की यह अवधारणा नहीं है। बल्कि यह सादृश्य किसी फिल्म के जैसा है। फिल्म में एक नैरन्तर्य होता है; फिल्म के फ्रेम उस नैरन्तर्य का निर्माण करते हैं।

और न ही बौद्ध धर्म यह कहता है कि मैं आप बन जाता हूँ, या हम सभी एक हैं। यदि हम सभी एक होते, और मैं आप होता, तो फिर यदि हम दोनों को भूख लगी होती तो आप कार में बैठ कर प्रतीक्षा कर सकते थे और मैं भोजन करके आ जाता। लेकिन ऐसा है नहीं। हम सभी का अपना-अपना अलग सातत्य प्रवाह है। मेरी फिल्म का घटनाचक्र आपकी फिल्म का घटनाचक्र नहीं बन सकता, लेकिन हमारा जीवन इस अर्थ में फिल्म की तरह बढ़ता है कि वह मूर्त और स्थिर नहीं है। जीवन भी एक फ्रेम से दूसरे फ्रेम की ओर आगे बढ़ता है। कर्मगति के अनुसार उसकी एक क्रमबद्धता है, और इस प्रकार जीवन में एक सातत्य का निर्माण होता है।

प्रत्येक सातत्य कोई व्यक्ति होता है जिसे “मैं” कहा जा सकता है; ऐसा नहीं है कि प्रत्येक सातत्य कोई व्यक्ति ही न हो। लेकिन जिस प्रकार किसी फिल्म कथा का शीर्षक उस पूरे चलचित्र और उसके प्रत्येक फ्रेम का प्रतिनिधित्व तो करता है, लेकिन उसे मूर्त रूप में फिल्म के प्रत्येक फ्रेम में नहीं खोजा जा सकता है, उसी प्रकार “मैं” किसी व्यक्ति के मानसिक सातत्य और उसके प्रत्येक क्षण को तो दर्शाता है, लेकिन उसे मूर्त रूप में किसी क्षण में नहीं खोजा जा सकता है। फिर भी, परम्परा से एक “मैं” या “अहं” की मान्यता है। बौद्ध धर्म कोई शून्यवादी पद्धति नहीं है

क्या मनुष्यों का पुनर्जन्म हमेशा मनुष्य के रूप में ही होता है?

यहाँ हम मानसिक क्रियाओं और हमारी मानसिक क्रियाओं की विशेषताओं को दर्शाने वाले सामान्य तत्वों के बारे में चर्चा कर रहे हैं। बुद्धिमत्ता मनुष्यों की मानसिक क्रियाओं की विशेषता को दर्शाती है, और जैसाकि हम जानते हैं कि इस बुद्धिमत्ता को “बहुत अधिक बुद्धिमान न होने” से लेकर “बहुत अधिक बुद्धिमान” होने के पैमाने पर नापा जा सकता है। लेकिन इसके अलावा क्रोध, लोभ, आसक्ति, विकर्षण और इन मानसिक कारकों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने बाध्यकारी व्यवहारों जैसे दूसरे कारक भी होते हैं जो हमारी मानसिक क्रियाओं का हिस्सा होते हैं। कुछ लोगों की मानसिक क्रियाओं पर ये कारक इतने अधिक हावी होते हैं कि वे अपनी मानवीय बुद्धिमत्ता का उपयोग नहीं करते हैं, बल्कि उनकी क्रियाएं मुख्यतः क्रोध, या लोभ आदि पर ही आधारित होती हैं।

उदाहरण के तौर पर कुछ लोगों की कामेच्छा बहुत प्रबल होती है और वे शराबखानों आदि में घूमते फिरते हैं जहाँ वे दूसरों से मिलते जुलते हैं, और मिलने वाले लगभग सभी लोगों के साथ यौन सम्बंध बनाते घूमते हैं – आपको नहीं लगता कि ऐसे लोग किसी कुत्ते के समान पशुवत व्यवहार करते हैं। ऐसा तो कोई कुत्ता ही करेगा कि मिलने वाले किसी भी दूसरे कुत्ते के साथ किसी भी समय यौन सम्बंध बनाए; वह अपने ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रखेगा। यदि कोई मनुष्य इस प्रकार का आचरण करता है तो वह एक पशु मानसिकता की आदत विकसित कर लेता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यदि हम पुनर्जन्म की दृष्टि से विचार करें तो उस व्यक्ति की काम वासना की मानसिकता उसके भविष्य के जन्म में उसकी मानसिक क्रियाओं पर हावी रहेगी, और उसका पुनर्जन्म किसी ऐसे जीव के रूप में होगा जो उस प्रकार की मानसिक क्रियाओं के लिए उपयुक्त हो, अर्थात, उसका पुनर्जन्म पशु के रूप में होगा।

इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपने व्यवहार पर ध्यान दें: “क्या मैं इस प्रकार के या उस प्रकार के पशु के रूप में व्यवहार कर रहा हूँ?” इसे एक मक्खी के उदाहरण से समझें। मक्खी की मानसिकता पूरी तरह मानसिक भटकन वाली होती है। मक्खी कुछ क्षणों से ज़्यादा समय तक किसी एक जगह टिक कर नहीं रह सकती है; उसका ध्यान लगातार भटकता रहता है और इसलिए वह एक जगह से उड़कर दूसरी जगह बैठती रहती है। क्या हमारा चित्त ऐसा ही है, किसी मक्खी की तरह? यदि ऐसा है, तो फिर हमें अपने अगले जन्म के लिए क्या आशा करनी चाहिए? क्या हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि अगले जन्म में हम बहुत बुद्धिमान और एकाग्रचित्त होंगे?

ये कुछ ऐसे विचार हैं जो इस बात को समझने में हमारी सहायता करते हैं कि यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्यों का जन्म मनुष्य के रूप में ही हो। हमारा पुनर्जन्म अनेक प्रकार के जीवों के रूप में हो सकता है, और इस क्रम में उतार-चढ़ाव आते हैं। यदि हमने मनुष्य के रूप में बहुत सी सकारात्मक आदतें विकसित की हों, तो यदि हमारा पुनर्जन्म किसी पशु के रूप में भी हो जाए तब भी जब हमारे पिछले पशुवत व्यवहार का कर्म प्रभाव खत्म हो जाएगा, तब हमारी पिछली सकारात्मक शक्ति प्रबल हो जाएगी और एक बार फिर हमारा पुनर्जन्म मनुष्य के रूप में हो सकता है। हम हमेशा निम्नतर योनियों में पुनः पैदा होने के लिए शापित नहीं हैं।

यहाँ समझने वाली बात यह है कि मानसिक क्रिया में ऐसा कोई गुण अन्तर्निहित नहीं होता है जो मानवीय मानसिक क्रिया बनाता हो, या उसे पुरुष या महिला की मानसिक क्रिया के रूप में अलग करता हो या ऐसा कोई दूसरा भेद उत्पन्न करता हो। वह तो शुद्ध रूप से मानसिक क्रिया होती है। और इसलिए हमें किस प्रकार का पुनर्जन्म मिलेगा यह हमारे कर्म पर निर्भर करता है, हमारी उन विभिन्न आदतों पर निर्भर करता है जिन्हें हम अपने बाध्यकारी व्यवहार से विकसित करते हैं। भविष्य के जन्मों में हम कोई ऐसा शरीर धारण करेंगे जो उन आदतों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए उपयुक्त हो।

सारांश 

जब हम पुनर्जन्म के बारे में बौद्ध धर्म की व्याख्या को तर्क की कसौटी पर कसते हैं तो हमें उस आकस्मिक प्रक्रिया के बारे में विचार करना होगा जिसके कारण व्यक्ति का मानसिक सातत्य – कभी न नष्ट होने वाली मानसिक क्रिया के वैयक्तिक नैरन्तर्य – चलता रहता है। हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुनर्जन्म की प्रक्रिया अनादि है, पूर्व में विकसित की गईं व्यवहारगत आदतें प्रत्येक जन्म के स्वरूप को निर्धारित करती हैं।

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